Wednesday, 10 August 2016

pashchatya kavya chintan

                                        पाश्चात्य काव्य - चिंतन 

                                        अभिजात्यवाद से उत्तराधिनिकतावाद तक 

                                                                                                                 
पाश्चात्य काव्य चिंतन के सारे काव्यान्दोलनों को ऐतिहासिक क्रम में इस प्रकार विभाजित किया जा सकता है।

१) आभिजात्य युग -                          ई.पू. ८५० से ३५० ई.
२ ) अंधकार युग -                             ३५० ई. से १३५० ई.
३ ) पुनर्जागरण युग -                        १३५० ई. से १६५० ई.
४) नावआभिजात्यवाद -                    १६५० ई. से १८०० ई.
५) स्वच्छन्दतावाद -                           १७९८ ई. से १८३२ ई.
६) कलावाद -                                   १८१६ ई. से १८८५ ई.
७) मार्क्सवाद -                                  १८४० ई. से १८८५ ई.
८) प्रतीकवाद -                                   १८८० ई. से १९१० ई.
९) बिम्बवाद -                                     १९०८ ई. से १९१७ ई.
१०) अतियथार्थवाद  -                           १९१८ ई. से १९३५ ई.
११) अस्तित्ववाद -                                १९३५ ई. से १९६० ई.
१२) नयी समीक्षा                                   १९४० ई. से १९६० ई.
१३) संरचनावाद  -                                १९५५ ई. से  १९७० ई.
१४) उत्तराधुनिकतावाद -                       १९७० ई. से अब तक



                                                       अभिजात्यवाद ( ई. पू. ८५० से ३५० ई. तक ) 
                                                         १.१ ) अभिजात्यवाद अथवा शास्त्रवाद 
अभिजात्यवाद अथवा शास्त्रवाद शब्द हिंदी में अंग्रेजी के क्लासिसिज्म ( classicism) की तर्ज पर प्रचलित है । 
अंग्रेजी में क्लासिसिज्म एक जटिल प्रत्यय है जिसका अनेक संदर्भो में परस्पर भिन्न अर्थों में प्रयो होता रहा है अर्थात सन्दर्भ विशेष ही इसका अर्थ निर्धारित करता है। सामान्यतः यूनान एवं  रोम की प्राचीन अनुकरणीय कृतियों अथवा श्रेष्ठ, अत्युत्तम एवं  उच्चकोटि के परिनिष्ठित साहित्य शैली के संदर्भ में इसका प्रयोग रूढ़ है । हिंदी में आभिजात्यवाद नाम से इस वाद की दो विशेषताएं संकेतित होती हैं। सर्वप्रथम ऐसा साहित्य जो अभिजात अथवा  कुलीन वर्ग से संबद्ध हो तथा जिसमें उच्च वर्ग के जीवन का प्रमुखता से चित्रण हुआ हो, वह आभिजात्यवादी साहित्य कहलाता  है।  दूसरे, ऐसा साहित्य अपने रूपबंध एवं संरचना में सौंदर्यशास्त्रीय प्रतिमानों पर आधारित हो तथा जो साहित्य के सार्वभौम - शाश्वत मूल्यों का पालन करते हुए अपने रूपात्मक तंत्र में सुव्यवस्थिति, सामंजस्यपूर्ण, एवं  सुपरिणत  हो, उसे आभिजात्यवादी साहित्य की संज्ञा से अभिहित किया जाता है। इसी तरह शास्त्रवाद शब्द से यह ध्वनित होता है कि रचनाकार साहित्यिक नियमों एवं काव्यानुशासनों का कठोरतापूर्वक पालन करें और काव्यशास्त्रीय मर्यादाओं के निर्वाह में किसी प्रकार की कोताही न बरतें। काव्यशास्त्रीय परंपरा का सम्यक अनुपालन ही शास्त्रवाद है। 











1 comment:

  1. डॉ.करुणाशंकर उपाध्याय की अत्यंत उपयोगी पुस्तक

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